समूह कार्य
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राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के अध्यायों पर विभिन्न समूहों की प्रस्तुति
हरिवंशराय बच्चन समूह
अध्याय 2 सीखना और ज्ञान
प्रथम प्रस्तुति -डॉ योगेन्द्र कुमार पाण्डेय
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के पाँचों अध्याय एक दूसरे से अंतर्संबंधित हैं|इसके अध्याय -2 ‘सीखना और ज्ञान’ के अंतर्गत सीखने की प्रक्रिया में आए मूलभूत बदलाव की चर्चा की गई है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें शिक्षक केंद्रित एकांगी शिक्षा प्रक्रिया के स्थान पर बाल केंद्रित शिक्षा को बढ़ावा दिया गया है अर्थात बच्चों के अनुभवों, उनके स्वरों और उनकी सक्रिय सहभागिता को प्राथमिकता दी गई है।
इस अध्याय के प्रथम बिंदु में परंपरागत शिक्षा व्यवस्था में समाजीकरण व सीखने में ग्रहण शीलता के गुण पर, शिक्षक की आज्ञा के पालन पर अधिक बल दिया जाता था |इसमें अध्यापक के शब्दों को आधिकारिक ज्ञान के रूप में स्वीकार किया जाता था, लेकिन वर्तमान शिक्षा पद्धति में बच्चों की दुनिया से वास्तविक तरीकों से संबंध बिठाने की कोशिश और बच्चों की सक्रियता व रचनात्मक सामर्थ्य को पोषित करने पर बल दिया गया है।
इस अध्याय के दूसरे बिंदु में विद्यार्थी को संदर्भ में रखकर शिक्षण प्रक्रिया पर जोर दिया गया है| इसमें केवल दोहराने के स्थान पर पहल करने, बच्चों द्वारा अपनी आवाज ढूंढने और उनके अनुभवों को उससे जोड़ने पर बल दिया गया। परंपरागत कक्षा के वातावरण में अनुशासन और तनाव व्याप्त रहता था, जबकि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या सीखने में आनंद, संतोष व विद्यार्थियों की विभिन्न क्षमताओं को मान्यता मिलने पर बल देती है।यहाँ शारीरिक दंड का पूरी तरह निषेध किया गया है।उनकी शारीरिक व भावनात्मक सुरक्षा, सुनिश्चित करने कहा गया है।
तीसरे बिंदु विकास व सीखने के अंतर्गत बच्चों के शारीरिक विकास, उनके लिए पौष्टिक आहार , शारीरिक व्यायाम व मनोवैज्ञानिक सामाजिक जरूरतों पर ध्यान रखने की बात की गई है।सामूहिक खेल से शारीरिक बल, स्थूल गत्यात्मक कौशल, नियंत्रण, आत्मचेतना व समन्वय क्षमता में सुधार होता है।
परंपरागत शिक्षा, जानकारी इकठ्ठा करने व रटने पर बल देती है।राष्ट्रीय पाठ्यचर्या ठोस चीजों व मानसिक द्योतकों की प्रस्तुति पर बल देती है।इससे विद्यार्थी की समग्र दृष्टि स्पष्ट होती है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या बच्चों की सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि पर ध्यान दिए बिना पड़ोस के सभी बच्चों को शिक्षा में शामिल करने पर बल देती है।
जाति, लिंग, वर्ग, स्थान के भेदभाव के बिना सभी को समान शिक्षा दी जाए।
बच्चे अनेक तरीकों से सीखते हैं, जैसे, पढ़कर, अनुभव से, प्रयोग से, विमर्श से, चिंतन से और ऐसे ही अन्य तरीकों से|विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर विविध विचारों की स्वीकृति के प्रति प्रतिबद्धता शिक्षा व्यवस्था में व्यक्त होनी चाहिए|
समाज में कुछ रूढ़ियाँ परंपरागत रूप से चली आ रही हैं, जैसे, ऐसी कुछ जातियां व कुछ समुदाय शिक्षा से सदैव दूर रहते आए हैं| जैसे,लड़कियां गणित और विज्ञान विषय में रुचि नहीं लेती हैं,आदि | शिक्षक , विद्यार्थियों की सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक विविधता की समझ को विकसित करें और शिक्षा व्यवस्था में सभी को शामिल करें | हमारी पाठ्यचर्या इन विभिन्नताओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए और इसमें विद्यार्थियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि का भी ध्यान रखा जाना चाहिए| कुल मिलाकर शिक्षा व्यवस्था में विश्वास का वातावरण बने| विद्यार्थी का अनुभव भी स्वीकार किया जाए| प्रश्न उठे, उनका हल निकले और फिर एक विकल्प चुना जाए जो अधिगम की मूल भावना को सुरक्षित रखते हुए विद्यार्थियों की समझ और उसकी चेतना को विकसित करे।कक्षाओं में मानसिक रूप से बच्चों को तैयार कर ही पढ़ाना उचित होगा।बच्चों का सीखना स्कूल में हो सकता है, स्कूल के बाहर भी हो सकता है।सीखना मध्यस्थ (शिक्षक)की सहायता से या उसके बिना भी हो सकता है।
किशोरावस्था में विद्यार्थियों को शारीरिक व भावनात्मक सहारे की आवश्यकता होती है।उन्हें शारीरिक बदलाव व वयस्काभिमुख होते हुए सामाजिक, शारीरिक मांगों से संगति बिठाने के लिए तैयार किया जाना चाहिए।शिक्षा में इन पहलुओं को अवश्य शामिल करना चाहिए।
कक्षा में सभी बच्चों के लिए समावेशी माहौल तैयार होना चाहिए| कक्षा में बच्चों के बीच अंतर को , मतभेद को समस्या के रूप में नहीं बल्कि सहयोगी संसाधन के रूप में देखना चाहिए।
‘चतुर्थ बिंदु पाठ्यचर्या एवं व्यवहार के लिए निहितार्थ बिंदु’- के अंतर्गत विद्यार्थी को पूर्व लब्ध ज्ञान का भी उपयोग किया जाए। उपलब्ध सामग्री व गतिविधियों के आधार पर ज्ञान की रचना की जाए।भिन्न उत्तरों को स्वीकार किया जाए व उत्तरों के आधार पर अनेक प्रश्न तैयार किए जाएँ।आजकल परियोजनाओं व समूह गतिविधियों के माध्यम से बच्चा ज्ञान के साथ-साथ कला व कौशल सीखता है।
विद्यार्थियों की स्वतंत्र विचार प्रक्रिया को बढ़ावा दिया जाए।सीखने के विविध तरीकों को मान्यता दी जाए।पाठ्यपुस्तकों के अलावा अन्य स्रोतों से भी ज्ञान, अनुभव व प्रमाण जुटाए।
नियोजन के उपागम के रूप में पाठ्योजना को विविधतापूर्ण व गतिविधि आधारित बनाया जाए।विवेचनात्मक शिक्षा शास्त्र के अंतर्गत विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर विविध विचारों की स्वीकृति व संवाद के लोकतान्त्रिक रूप के प्रति प्रतिबद्धता रखी जाए|कभी-कभी बच्चे के घर का वातावरण या आर्थिक स्थिति औपचारिक शिक्षण को सहारा देने के अनुकूल नहीं होती|पाठ्यचर्या को इनके प्रति भी संवेदनशील होना चाहिए|
बच्चन समूह द्वितीय प्रस्तुति – द्वारा-श्री तेज नारायण सिंह
सीखने एवं ज्ञान को बच्चों को स्वाभाविक रूप से सीखने वालों की तरह पहचाने जाने की आवश्यकता है ।आम दिनचर्या में विद्यालय से बाहर हम बच्चों की जिज्ञासा , लगातार प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति का आनंद लेते हैं, बच्चे अपने आसपास की दुनिया से बहुत ही सक्रिय रूप से जुड़े होते हैं, प्रतिक्रिया करते हैं, चीजों के साथ कार्य करते हैं|
2.5 ज्ञान एवं समझ -बच्चों को क्या पढ़ाया जाए ,एक अधिक गहरे सवाल से निकलता है कि शिक्षा के उद्देश्य क्या होने चाहिए |इसका उत्तर है वे क्षमताएँ व मूल्य ,जो हर व्यक्ति में होने चाहिए और समाज के लिए एक सामाजिक राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दर्शन का विकास होना चाहिए|उदाहरण के लिए कक्षा में बच्चों को किसी घर का एक चित्र दिखाना जिसमें परिवार के विभिन्न सदस्य विभिन्न कार्यों का संपादन कर रहे हैं| एक पुरुष रसोईघर में खाना पका रहा है ,लड़की बिजली का बल्ब ठीक कर रही है| दूसरी लड़की साइकिल चला रही है | इनउदाहरण के द्वारा पूछें,क्या उन्हें ऐसा लगता है कि इनमें से कोई काम किसी को नहीं करना चाहिए ?क्यों ?उनसे काम की गरिमा, समानता पर चर्चा की जानी चाहिए| समझ को ऐसी सूचना के तौर पर व्यवस्थित करना होगा जिसका बच्चों के दिमाग में स्थानांतरण हो सके ।
2.5.1
क भाषा एवं अभिव्यक्ति के अन्य माध्यम ,अर्थ निर्माण और दूसरों के साथ बांटने के आधार तैयार होते हैं| वे ज्ञान के विकास की संभावना तैयार करते हैं|
ख) संबंध बनाना और कायम रखना, समाज प्रकृति एवं स्वयं के साथ भावनात्मक प्रगाढ़ता, संवेदनशीलता और मूल्यों के साथ सतत संबंध बनाना जीवन में सार्थकता लाता है|
ग) कार्य -क्रिया संबंधी क्षमता इसमें शारीरिक समन्वय व विचार और संकल्प से तालमेल, कौशल और समझ के आधार पर किसी लक्ष्य को पाने या कुछ करने के दिशा निर्देश शामिल हैं|
2.5.2 व्यवहार में ज्ञान- मानव गतिविधियों और व्यवहार का विस्तृत क्षेत्र सामाजिक जीवन एवं संस्कृति को जीवित रखता है| जैसे कताई ,कास्तकारी व दुकानदारी जैसे पेशे के साथ -साथ विविध प्रकार की प्रदर्शन और दृश्य कला का ज्ञान शामिल है|
2.5.3 समझ के रूप- ज्ञान की पुष्टिकरण व औचित्य को स्थापित करने की प्रक्रिया में जिन अवधारणाओं व अर्थों का उपयोग किया जाता है उनके आधार पर भी ज्ञान का वर्गीकरण किया जा सकता है |प्रत्येक का अपना आलोचनात्मक चिंतन ,ज्ञान को जांचने व उसकी पुष्टि करने का तरीका और अपने प्रकार की रचनात्मकता होती है| गणित की अपनी विशिष्ट अवधारणाएं होती है जैसे सरलीकरण करने के लिए बच्चों को पहले भाग ,इसके बाद गुना इसके बाद योग इसके बाद वियोग कीजिए क्रिया करनी होती है, जिससे विद्यार्थियों को पूर्णतः समझ में आना चाहिए|
2.6 ज्ञान को फिर से रचना- हम स्कूली पाठ्यचर्या के माध्यम से समझ की क्षमताएं, व्यवहार और कौशल विकसित करना चाहते हैं |इनमें से कुछ गणित, इतिहास, प्रकृति विज्ञान या दृश्य कलाओं में सहज ही विषयों के रूप में वितरित हो जाते हैं| ज्ञान के इस दृष्टिकोण के मुताबिक हमें खत्म हो जाने वाले तथ्यों से हटकर उस प्रक्रिया को समझने की आवश्यकता है जिन के माध्यम से वे उभरकर आते हैं| तथ्यों की सतह से नीचे जाकर भी उनके बीच गहरे संबंधों को समझने की जरूरत होती है जो उन्हें अर्थ और महत्व प्रदान करते हैं |दूसरे, विषयों का आपस में कोई तालमेल नहीं होता ,वे बिल्कुल अपरिवर्तनीय उपखंड बन जाते हैं।इसलिए ज्ञान भी जुड़ा हुआ लगने के बदले खंडित लगने लगता है |तीसरा- पहले से मौजूद ज्ञान को ज्यादा तरजीह दी जाती है जिससे बच्चे की खुद ज्ञान सृजित करने और इस प्रक्रिया के नए तरीके खोजने की क्षमता नष्ट हो जाती है| चौथी समस्या का संबंध नए विषयों को शामिल करने से है |यह एक महत्वपूर्ण जरूरत है कि समाज के समकालीन मुद्दों को संबोधित करें लेकिन इससे एक अनुचित बात यह बन गई है कि इन मुद्दों को संबोधित करने के लिए नए विषय बना दिए जाते हैं ।
2.7 बच्चों का ज्ञान और स्थानीय ज्ञान -बच्चे का समुदाय और उसका स्थानीय वातावरण अधिगम प्राप्ति के लिए प्राथमिक संदर्भ होता है ,जिसमें ज्ञान अपना महत्व अर्जित करता है| परिवेश के साथ अंतः क्रिया करके ही बच्चा ज्ञान अर्जित करता है और जीवन में सार्थकता पाता है| शिक्षार्थी जब तक अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को पाठ्य पुस्तक में निरूपित संदर्भों के संबंध में स्थित नहीं कर पाते और इस ज्ञान को समाज के अपने अनुभवों से जोड नहीं पाते तब तक ज्ञान मात्र सूचना के स्तर पर रहता है |अतः शिक्षार्थी को उसके सीखने में एक सक्रिय भागीदार की तरह पहचानने की जरूरत है ।दिन प्रतिदिन बच्चे स्कूल में अपने आसपास की दुनिया के अनुभव लेकर आते हैं । अतः उन्हें अपनी रूचि के अनुसार पढ़ने या समझ को विकसित करने का मौका देना चाहिए|
2.8 स्कूली ज्ञान और समुदाय -यह जरूरी है कि सामाजिक, सांस्कृतिक संस्कार , संसार के अनुभवों को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए |इस बात की जरूरत है कि बच्चे पाठ्य पुस्तकों में निरूपित जीवन शैली और लोगों में अनेकत्व की अभिव्यक्ति एवं चित्रण को पहचाने |इन वर्णनों में इसका ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी भी समुदाय का अति सरलीकरण ना हो और ना ही उन पर कोई ठप्पा लगाया जाए|
2.9 कुछ विकासमूलक विचार -बच्चों में रुचि ,शारीरिक क्षमता ,भाषिक क्षमता, अमूर्तन और सामान्यीकरण की क्षमता का विकास स्कूल- पूर्व शिक्षा से लेकर माध्यमिक स्तर की शिक्षा तक में होता है |इसलिए पाठ्यचर्या के क्षेत्रों के चयन एवं व्यवस्थापन के प्रस्ताव को निश्चित करने के लिए यह एक महत्वपूर्ण आयाम है| ज्ञान के सृजन एवं पुनः सृजन के लिए अनुभव के आधार, भाषाई क्षमता एवं प्राकृतिक संसार और दूसरे लोगों के साथ अंतः क्रिया की जरूरत होती है| पहली बार स्कूल में प्रवेश करते ही बच्चा ज्ञान के संसार का सृजन शुरू कर देता है| पहली बार विद्यालय आने से पहले ही बच्चों को अपनी अभिव्यक्ति करना आता है । उसके बाद भी वर्णमाला की शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए |उन्हें अंको का भी ज्ञान होता है । अतः हमें इससे परहेज करना चाहिए |अंत में स्कूली विषयों को उपर्युक्त आधारभूत रूपों तथा उच्च शिक्षा में पहचाने गए अनुशासनों के साथ गहरे रूप से जोड़ा जा सकता है |ज्ञान के सभी रूपों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व, समानता पर जोर, विशेषताओं और उनके व्यापक आंतरिक जुड़ाव तब महत्वपूर्ण हो जाते हैं जब विषयों की सीमा रेखा स्पष्ट रूप से परिभाषित हो|
शिव नारायण शर्मा - मन्नू भंडारी
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा - 2005 के पांचवे अध्याय "व्यवस्थागत सुधार" का सार प्रस्तुत किया गया । रवीन्द्रनाथ टैगोर के निबंध 'सभ्यता और प्रगति' के मूल उत्स का उल्लेख करते हुए सृजनात्मकता और उदार आनंद को बचपन की कुंजी बताया । ईशावस्योपनिषद के श्लोक - जो केंद्रीय विद्यालय संगठन का सूत्र वाक्य भी है - " हिरण्मयेन पात्रेन सत्यस्यपिहितं मुखं ,तत्त्वं पूषन आपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये" का उल्लेख करते हुए बताया गया की राष्ट्रीय कार्ययोजना 2005 भी इसी श्लोक की भावना के अनुसार व्यवस्थागत सुधार के अंतर्गत ज्ञान प्राप्ति और सीखने के संदर्भ में आने वाली सभी प्रकार के बाधाओं को हटाकर आधुनिक प्रजातांत्रिक मूल्यों को आत्मसात करने वाली तथा मानवीय स्वरूप को धारण करने वाली होनी चाहिए ।
वर्तमान सामाजिक वैश्विक संदर्भों के ध्यान में रखते हुए शिक्षा और शिक्षण प्रक्रिया को शिक्षार्थी केंद्रित होना चाहिए । शैक्षिक परिवेश में बहुलता,समता और न्याय की बारंबारता होनी चाहिए । विद्यार्थियों में अभिप्रेरणा और क्षमता की समग्र अभिवृद्धि पर ध्यान दिया जाना चाहिए। क्या पढ़ाया जाय और क्या सीख जा सकता है में संतुलन होना चाहिए । विद्यार्थियों की कमजोरियों को पहचान कर उसे दूर करना और उनकी क्षमताओं का विकास कर शिक्षा की गुणवत्ता का संवर्धन किया जा सकता है ।समान स्कूल व्यवस्था की वांछनीयता जिसमे अलग अलग पृष्ठभूमियों के विद्यार्थी सम्मिलित हो जिससे लोकतांत्रिक/समावेशी संस्कृति का विकास हो सके ।
व्यवस्थागत सुधार के अंतर्गत अध्ययन-अध्यापन की परिस्थितियों को शिक्षकों के लिए उत्साहवर्धक सहयोगी और मानवीय बनाया जाए । विद्यार्थियों में वांछनीय सामाजिक और मानवीय मूल्यों के विकास का अवसर मिले शिक्षा की ऐसी व्यवस्था मूर्त होनी चाहिए । शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षार्थी की सक्रिय भागीदारी , अधिगम के साझे संदर्भ,ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में शिक्षक उत्प्रेरक की भूमिका में होना चाहिए । परीक्षा की प्रक्रिया में बदलाव कर मूल्यांकन प्रक्रिया को सतत बनानी चाहिए ।मूल्यांकन पद्धति लचीली होनी चाहिए । पंचायती संस्थाओं को सशक्त बनाने में गांव के स्तर की संस्थाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए । 12वीं कक्षा तक काम केंद्रित शिक्षा को अभिन्न अंग बनाना चाहिए । व्यवसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण को मिशन मोड रूप में लागू किए जाने की जरूरत पर बल दिया जाना चाहिए । कक्षा अभ्यासों में साझेदारी को बढ़ावा देना चाहिए जिससे कि नवाचार एवं प्रयोग को बढ़ावा मिल सके । सामाजिक न्याय , शैक्षिक समावेशन और लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए पठन पाठन के अनुकूल वातावरण का निर्माण करने वाला ढांचा विकसित करने पर जोर दिए जाने पर बल देते हुए अपना वक्तव्य समाप्त किया ।
शैलेन्द्र कुमार शर्मा -मुक्तिबोध समूह
विद्यालय एवं कक्षा का वातावरण
भौतिक वातावरण सक्षम बनाने वाले वातावरण का पोषण सभी बच्चों की भागीदारी अनुशासन और सहभागी प्रबंधन अभिभावकों और समुदाय के लिए स्थान पाठ्यचर्या के स्थल और अधिगम के संसाधन समय शिक्षक की स्वायत्तता और व्यावसायिक स्वतंत्रता
सीखने की प्रक्रिया सामाजिक संबंधों के ताने-बाने में लगातार चलती रहती है जब शिक्षक एवं विद्यार्थी औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप से अंतः क्रिया करते हैं विद्यालय शिक्षार्थियों के समुदाय के लिए जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी दोनों आते हैं संस्थागत स्थान होते हैं
ऐसे स्थान जहां चेतन और अचेतन दोनों अंतः किया करते हैं इसके बावजूद शिक्षा के भौतिक वातावरण के महत्व पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता बच्चों से जब उनके पसंद के स्थान के विषय में पूछा जाता है तो अधिकतर वे उस स्थान पर रहना पसंद करते हैं जो रंग रंगीला दोस्ताना और शांत हो जहां ढेर सारी खुली जगह हो साथ ही छोटे कोने हो पशु पक्षी पेड़ पौधे और खिलौने हो बच्चों को आकर्षित करने के लिए विद्यालयों में इन चीजों का होना आवश्यक है यह सुनिश्चित करते हुए कक्षा कक्षों में पर्याप्त रोशनी हो उन्हें बच्चों के काम को कक्षा के दीवारों और स्कूल में विभिन्न स्थानों पर लगाकर कक्षा कक्षों को और अधिक जीवंत और प्रफुल्लित बनाया जा सकता है
श्री संजय कुमार काटोले-- द्विवेदी
पाठ्यचर्या के क्षेत्र
प्रस्तुत विषय पर NCF 2005 में विशेष बल दिया गया है जिसमें प्रथम भाषा के रूप में मातृ भाषा को मान्यता मान्यता दी गई है ।मातृभाषा में बच्चों को पढ़ना लिखना सिखाना आसान है ।प्राथमिक शिक्षण में गणित विज्ञान सामाजिक विज्ञान कक्षा एक से आठवीं तक का प्रावधान किया गया है ।कक्षा नवी से कक्षा नवी से पाठ्यचर्या के क्षेत्र अनेक बातें जोड़ी गई हैं जिसमें कौशल विकास काम और शिक्षा शांति के लिए शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया है । ncf-2005 2005 में विद्यालय विद्यालय भवन की स्थिति परविशेष बल दिया गया है शिक्षार्थियों का आकलन शिक्षण के क्षेत्र नए रूप में तय किए गए हैं । विद्यार्थियों की अभिरूचि के अनुसार शिक्षण का प्रबंध किया जाना चाहिए जैसे कला ,गायन , वादन, नृत्यकला , कृषि व बागवानी ।
पाठ्यचर्या ३ जो भारतीय समाज के नवोन्मेष और आवश्यकता के अनुरूप होगा रचनात्मकता ,सौंदर्य ,दबाव, स्वास्थ्य ,शांति ,शिक्षा खेल ।प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षण कार्य किया जाए ।मातृभाषा प्रथम स्थान पर रहेगी, उसके बाद हिंदी रहेगी, हिंदी के बाद अंग्रेजी रहनी चाहिए ।अंग्रेजी से भविष्य के अनेक द्वार खुल जाएंगे इस कारण वैश्विक भाषा के रूप में अंग्रेजी को स्थान प्राप्त है। एक भाषा सदूसरी भाषा से सीखना यह सभी संभव है भाषा के स्तर पर इसलिए मातृभाषा का स्थान महत्वपूर्ण है ।
विषय दो गणित गणित के अंतर्गततार्किक क्षमता और युक्ति का विकास तथा आने वाले समय का अनुमान लगाना गणित को विज्ञान के साथ जोड़ना ।इसके अतिरिक्त फिर विज्ञान विषय पर आते हैं विज्ञान में प्रकृति के बीच में कार्य वस्तु के प्रति संचेतना ,शुरुआती दौर जीवन को जानने का तरीका, तार्किक सोच को विकसित करना, परिवर्तन बदलाव इन सभी विषयों को भी अपने पाठ्यक्रम में रखेंगे इसके साथ-साथ सामाजिक विज्ञान की पाठ चर्या के अंतर्गत किताबी ज्ञान के साथ-साथ इतिहास का प्रभाव और समाज की अर्थशास्त्र की वास्तविकता बाजार का परिवर्तन समाज के परिवर्तन इन सभी को जोड़ा जाना चाहिए कला के अंतर्गत कला को परंपरागत तरीके के साथ और शास्त्र को शामिल किया जाना चाहिए इसके साथ में
स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा के अंतर्गत पूर्ण रूप से सभी बच्चों के स्वास्थ्य को और शिक्षा को पूर्ण रूप से ध्यान दिया जाना उसके अतिरिक्त अतिरिक्त और उनका पूर्ण मूल्यांकन के स्वास्थ्य को आने वाले समय के लिए ठीक किया जाए और शिक्षा के अंतर्गत छोटे कामों में काम करने की आदत विकसित करना और नए नए काम के तरीकों को सिखाना भी इसका पाठ्यक्रम होना चाहिए मैं इसके अंतर्गत शांति के अंतर्गत भेदभाव को दूर करना को हटाना धार्मिक भेदभाव को मिटाने और एक ऐसा माहौल बनाना चाहिए।
प्रस्तुत विषय पर NCF 2005 में विशेष बल दिया गया है जिसमें प्रथम भाषा के रूप में मातृ भाषा को मान्यता मान्यता दी गई है ।मातृभाषा में बच्चों को पढ़ना लिखना सिखाना आसान है ।प्राथमिक शिक्षण में गणित विज्ञान सामाजिक विज्ञान कक्षा एक से आठवीं तक का प्रावधान किया गया है ।कक्षा नवी से कक्षा नवी से पाठ्यचर्या के क्षेत्र अनेक बातें जोड़ी गई हैं जिसमें कौशल विकास काम और शिक्षा शांति के लिए शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया है । ncf-2005 2005 में विद्यालय विद्यालय भवन की स्थिति परविशेष बल दिया गया है शिक्षार्थियों का आकलन शिक्षण के क्षेत्र नए रूप में तय किए गए हैं । विद्यार्थियों की अभिरूचि के अनुसार शिक्षण का प्रबंध किया जाना चाहिए जैसे कला ,गायन , वादन, नृत्यकला , कृषि व बागवानी ।
श्री भूपेश सिंह- द्विवेदी
विषय दो गणित गणित के अंतर्गततार्किक क्षमता और युक्ति का विकास तथा आने वाले समय का अनुमान लगाना गणित को विज्ञान के साथ जोड़ना ।इसके अतिरिक्त फिर विज्ञान विषय पर आते हैं विज्ञान में प्रकृति के बीच में कार्य वस्तु के प्रति संचेतना ,शुरुआती दौर जीवन को जानने का तरीका, तार्किक सोच को विकसित करना, परिवर्तन बदलाव इन सभी विषयों को भी अपने पाठ्यक्रम में रखेंगे इसके साथ-साथ सामाजिक विज्ञान की पाठ चर्या के अंतर्गत किताबी ज्ञान के साथ-साथ इतिहास का प्रभाव और समाज की अर्थशास्त्र की वास्तविकता बाजार का परिवर्तन समाज के परिवर्तन इन सभी को जोड़ा जाना चाहिए कला के अंतर्गत कला को परंपरागत तरीके के साथ और शास्त्र को शामिल किया जाना चाहिए इसके साथ में
स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा के अंतर्गत पूर्ण रूप से सभी बच्चों के स्वास्थ्य को और शिक्षा को पूर्ण रूप से ध्यान दिया जाना उसके अतिरिक्त अतिरिक्त और उनका पूर्ण मूल्यांकन के स्वास्थ्य को आने वाले समय के लिए ठीक किया जाए और शिक्षा के अंतर्गत छोटे कामों में काम करने की आदत विकसित करना और नए नए काम के तरीकों को सिखाना भी इसका पाठ्यक्रम होना चाहिए मैं इसके अंतर्गत शांति के अंतर्गत भेदभाव को दूर करना को हटाना धार्मिक भेदभाव को मिटाने और एक ऐसा माहौल बनाना चाहिए।
अनुराधा पांडे - मन्नू भंडारी
स्कूली पाठ्यचर्या के राष्ट्रीय आयामों का जो खाका खींचा गया है वह शाम को सामाजिक विवेक से युक्त
शिक्षा के लक्ष्य से प्रेरित है इसके केंद्र में विद्यार्थी हैं जो ज्ञान के रहने करता मात्र नहीं है बल्कि अपने व्यक्तिगत
और सामूहिक प्रयासों की सक्रियता से ज्ञान की रचना में कुछ जुटे हुए हैं इनमें महत्वपूर्ण है शिक्षकों को तैयार
करके उनके पीछे पर व्यवहार को प्रमोशन तथा अकादमिक नेतृत्व के द्वारा अधिक कारगर बनाने वाली
व्यवस्था पाठ्यपुस्तक और अध्ययन सामग्री तैयार करने वाली प्रणाली विकेंद्रीकरण एवं पंचायती राज
संस्थाएं कार्य आधारित शिक्षा व्यवसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण एवं सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा व्यवस्था
गुणवत्ता हेलो हाउ के रूप में विभिन्न स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता संबंधी प्रयासों के लिए अधिक आवश्यक है
कि पाठ्यचर्या में सुधार लाया जाए सूचना को ज्ञान समझने की प्रवृत्ति पर नियंत्रण किया 0जाना चाहिए
बच्चों की शिक्षा को एक अलग अलग परिणाम के रूप में देखने की प्रवृत्ति की जगह विकासात्मक मानकों
का प्रयोग किया जाना चाहिए स्कूल पूर्व के उच्च माध्यमिक स्तर तक उत्पादक कार्य को ज्ञान प्राप्ति विकास
कौशल का निर्माण संबंधी चुनाव का उचित ख्याल रखते हुए शिक्षकों की नियुक्ति सेवा पूर्व प्रशिक्षण
सेवारत प्रशिक्षण कार्य परिस्थितियों से संबंधित नीतियों में 1984 की चट्टोपाध्याय शिक्षा और शिक्षक
प्रशिक्षण सामग्री के रूप में गुणवत्ता की व्यवस्था की क्षमता की होती है एवं कमियों को दूर कर क्षमताओं का
विकास करें अपने स्तर पर सामग्री के साथ सहयोग करें और पुस्तकों की रचना के स्कूलों में अकादमिक
नेतृत्व और शिक्षा संविधान के 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज प्रणाली ग्राम जिला तालुका स्थापित की
गई पहचान की गई है प्राथमिक माध्यमिक शिक्षा अनौपचारिक शिक्षा तकनीकी शिक्षण व्यावसायिक
शिक्षण शामिल है शिक्षा वर्तमान सरकार चट्टोपाध्याय समिति की सिफारिश की 12वीं के बाद माध्यमिक
शिक्षक प्रशिक्षण की अवधि 5 वर्ष होनी चाहिए इसमें यह उछाल दिया गया था कि विज्ञान और कला संबंधी
कालेजों में एक शिक्षा विभाग की भी स्थापना होनी चाहिए शिक्षक की शिक्षा को स्कूल इस व्यवस्था की
भर्ती मांगों के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए शिक्षकों को उसके लिए तैयार करना चाहिए उनको सा
वर्धक सहयोगी और मानवीय होना चाहिए जिससे विद्यार्थी अपनी संभावनाओं को का पूर्ण विकास तो
जिम्मेदार नागरिक की भूमिका शिक्षक प्रशिक्षण में आवश्यक तत्व इस प्रकार होता है इसमें हो और उसके
अनुकूल माहौल बना ज्ञान को व्यक्तिगत अनुभव के रूप में समझो सीखने सिखाने के अनुभव अनुभव के
रूप में प्राप्त करें परामर्श की पोस्टल और क्षमताओं का विकास कर सके ताकि बच्चों के शैक्षणिक
व्यक्तिगत और सामाजिक सूचियों का समाधान सुलझाने में उसे सुविधा हो काम के द्वारा विभिन्न विषयों का
ज्ञान विविध मूल्य और विविध कौशलों के विकास के साथ किस प्रकार प्राप्त होता है इसकी शिक्षा देना
सीखे शिक्षक शिक्षा की कार्यक्रम में बदलाव अधिगम को सहभागिता की उस प्रक्रिया के रूप में देखा जाना
चाहिए जो सहपाठी और वृहद सामाजिक समुदाय का पूरे राष्ट्र के साथ ही सामाजिक संदर्भ के बीच होती है
शिक्षक की भूमिका ज्ञान की होगी जो सूचना विज्ञान में बदलने की प्रक्रिया में विविध उपायों से शिक्षार्थियों
की पूर्ति में मदद करें ज्ञान की अवधारणा में आई है को एक सतत प्रक्रिया माना जाने लगा है जो वास्तविक
अनुभव के अवलोकन तुष्टिकरण आदि से आदि से उत्पन्न होता है सेवाकालीन शिक्षक शिक्षा और प्रशिक्षण
शिक्षक प्रशिक्षण शिक्षकों के पेशेवर विकास स्कूल की गतिविधियों में बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका इससे
शिक्षक व्यवहारिक कार्यों के माध्यम से अपने अनुभव को पक्का कर आत्मविश्वास अजीत करते हैं सेवारत
शिक्षक शिक्षा की पहले और रणवीर या नई शिक्षा नीति 1986 के मद्देनजर प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल
के शिक्षकों की शिक्षा के लिए डाइट आई ए एस ई सी सी के गठन पर बल दिया डीपीईपी के खंड और
संकुल संदर्भ केंद्र बनाए और सेवाकालीन शिक्षक शिक्षा का प्रसार किया था कि स्कूलों में शिक्षा तकनीक में
बदलाव लाया गया और 12वीं के अंत में होने वाले बदलाव होना चाहिए क्योंकि बढ़ावा मिलता है परीक्षा प्रश्न
बनाने पर होना चाहिए इस प्रकार प्रश्न भी एकत्र कर उन्हें अवधारणा हल करने में लगने वाले समय के किया
जा सके में लचीलापन मनोवैज्ञानिक आंखों से पता चलता है कि अलग अलग हुए हैं जांच ज्ञान की प्रस्तुति
भी अलग अलग ढंग से होती इसलिए कागज कलम से ली गई परीक्षा के अलावा मूल्यांकन की बहू में
चाहिए मौखिक परीक्षा समूह कार्य को बढ़ावा दिया जाना चाहिए खुली पुस्तक परीक्षा और लचीली समय
सीमा रही परीक्षा का प्रायोगिक तौर पर लागू किए जाने की जरूरत है अंग्रेजी एवं गणित में 2 स्तर परीक्षा
लेने का अवसर प्रदान किया जाए सभी के लिए समान परीक्षा की पद्धति संगठन रूप से तो ठीक हो
सकती है लेकिन उसे विद्यार्थी केंद्रित नहीं कहा जा सकता बोर्ड परीक्षाएं परीक्षाएं आयोजित की जानी
चाहिए कक्षा 10 की परीक्षा को वैकल्पिक बनाना इसकी भी आगे शिक्षा पाते प्रवेश परीक्षाएं स्कूल के अंत
की बोर्ड की प्रधान प्रवेश परीक्षाओं को अलग करने की बात कही गई एक ऐसी संस्था हो जो साल भर में हुई
परीक्षाओं को एक साथ आयोजित कर सके तथा बसंता विद्यार्थियों की उपलब्धियों का समय पर आकलन
कर नतीजे घोषित करें काम की शिक्षा काम की शिक्षा का निहितार्थ है बच्चों में उनके परिवेश प्राकृतिक
संसाधनों से संबंधित ज्ञान आधारित सामाजिक अंकेक्षण तथा कौशलों को विद्यालय व्यवस्था में उनकी
गरिमा और मजबूती के शब्दों में बदला जा सकता है कि शिक्षा शास्त्र से वैश्विक अर्थव्यवस्था की चुनौतियों
का सामना करने के लिए प्रासंगिक कौशलों का विकास संविधान तथा सामाजिक संस्था का विकास में
पाठ्यचर्या में उत्पादक कार्य को एक शिक्षा शास्त्री माध्यम की तरह जगह देने से शिक्षा व्यवस्था के विभिन्न
पहलुओं में दार्शनिक पाठ्यचर्या और सांगठनिक रूप में काफी परिवर्तन आ सकता है काम केंद्रित शिक्षा
अकादमिक स्वायत्त और दायित्व पाठ्यचर्या नियोजन पाठों के स्रोत शिक्षकों की नियुक्ति और उनकी शिक्षा
अनुशासन संबंधी विचार उपस्थिति और स्कूल निरीक्षण अंतर अनुशासनात्मक ज्ञान स्कूल कैलेंडर का
प्रबंधन कक्षा और कालांश स्कूल के बाहर अधिगम स्थलों का निर्माण सार्वजनिक सार्वजनिक परीक्षाओं के
मूल्यांकन की आया तथा आकलन विधियां इन सब का तात्पर्य के पाठ्यचर्या सुधार एवं गुणवत्ता विकास
का गहरा संबंध व्यवस्था सुधारो से शिक्षा और प्रशिक्षण चरणबद्ध तरीके से व्यवसायिक शिक्षा और
प्रशिक्षण के नए कार्यक्रम की ओर बढ़े जिससे मिशन के रूप में तैयार किया जाए और लागू किया जाए
इसमें 1 गांवों के संकुल और ब्लॉक स्तर से लेकर उप जिला जिला नगर महानगर व्यवसायिक शिक्षा तथा
प्रशिक्षण केंद्र संसाधन की स्थापना शामिल हो शिक्षण प्रशिक्षण की रचना कौशल प्राप्त करने के लिए
पाठ्यक्रम को अपनाना चाहते हैं स्कूल के साथ संस्थाओं को भी इस प्रकार बनाए जाने की जरूरत होगी
समावेशी हो उसमें कौशल का विकास ना केवल आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक कारणों से और
ऐतिहासिक रूप से वंचित हो बल्कि प्रतिकूल शारीरिक तथा मानसिक स्थिति वाले बच्चों के लिए सुनिश्चित
किया जा सके मनोविज्ञान और परामर्श का प्रावधान किया जा सकता है विचार और व्यवहार में नाचा पार्टी
पुस्तक की बहुलता पाठ्यचर्या में ढंग से बच्चों और उनकी भाषा में जरूरी है कि पाठ्य पुस्तक लेखक को
विकृत कर दिया जाए और नाम किसी एक विषय विशेषज्ञ को सौंपने का निर्माण कैसे पढ़ते हैं इस
अवधारणा का पढ़ते हैं इस अवधारणा का स्पष्टीकरण निवेश और विज्ञान की पुस्तकों की उपलब्धता की
बात कर रहे हैं जिसमें 1 शिक्षकों के सामने विकल्प हो जाएंगे और की रूचि और आवश्यकताओं के नेता का
समावेश हो सकेगा जब आवश्यक सामग्री उपय छक्कों की पुस्तकें और सहायक सामग्री उपलब्ध होंगी तो
शिक्षक तकनीक का उपयोग तकनीक का उपयोग तकनीक का विवेकपूर्ण उपयोग शिक्षा कार्यक्रम की पहुंच
को बढ़ा सकता व्यवस्था के प्रबंधक में सहायता कर सकता है और शिक्षा संबंधी विशिष्ट आवश्यकताओं की
पूर्ति कर सकता है दूरस्थ शिक्षा शिक्षा शिक्षा के दोहे तरीकों की भी तकनीक का लाभ मिल सकता है विशेष
विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा को ध्यान में रखते हुए भी तकनीकी नव निवेश की जरूरत नहीं
साझेदारी या गैर सरकारी संगठन नागरिक समाज समूह शिक्षक संगठनों की भूमिका शिक्षा से गैर सरकारी
संगठनों और नागरिक समाज समूह और सरकारी संगठनों ने शिक्षा के मॉडलों की रचना शिक्षक प्रशिक्षण
पाठ्य पुस्तकों एवं पाठ्य सामग्री के निर्माण में बड़ी भूमिका औपचारिक जुड़ा विकास अकादमिक निरीक्षण
और शोध के लिए आवश्यक है विश्वविद्यालय आरटीआई संस्थाओं के आपस में जोड़ने की आवश्यकता है
महिला और बाल विकास विभाग स्वास्थ्य विभाग खेल और युवा मामलों का विभाग विज्ञान एवं तकनीकी
विभाग आदिवासी मामलों का विभाग सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण विभाग संस्कृति विभाग पर्यटन
विभाग भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यह सभी मिलकर व्यवस्था का सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण कदम भी
विद्यालय एवं कक्षा का वातावरण
वातावरण के भौतिक और मनोवैज्ञानिक आयाम महत्वपूर्ण और परस्पर संबंधित हैं।
स्कूल में बच्चे स्वयं को सुरक्षित, खुश और स्वीकृत महसूस कर सकें।
शिक्षक स्कूली वातावरण सार्थक और व्यावसायिक रूप से संतोषजनक पाएँ |
बच्चों के द्वारा की गई चित्रकारी और हस्त कार्य के नमूने दीवारों पर लगाने से माता पिता और बच्चों को यह संदेश जाता है कि उनके काम को सराहा जा रहा है |
इन कलाकृतियों को ऐसी जगहों और उतनी ऊंचाई पर लगाना चाहिए ताकि स्कूल के विभिन्न आयु वर्ग के बच्चे आसानी से पहुंचे और उनको देख पाएँ|
कक्षा गत स्थान:
अलमारी को इस प्रकार बनाया जा सकता है जिस पर बच्चे लेखन पूर्व कौशलों का तथा भिन्नों को समझने का अभ्यास कर सके, कंडोम के प्रसार को दरवाजों के नीचे चिन्हित किया जा सकता है जिससे बच्चों को कोण की अवधारणा समझने में मदद मिले या कक्षा की अलमारी को पुस्तकालय का रूप दिया जा सकता है या ऊपर लगे पंखों को विभिन्न रंगों में रंगा जा सकता है ताकि बच्चे विभिन्न रंगों के बदलते चक्रों का आनंद ले सकें|
अर्द्ध -खुला या बाहर का स्थान
बच्चों को खोज और छानबीन करने दी जाएँ
खंभे की घटती बढ़ती परछाईयाँ जो धूप घड़ी की तरह समय मापने के विभिन्न तरीके से समझा सकती है शीत के मौसम के लिए उपयुक्त पर्णपाती पौधों को लगाना जो शीत ऋतु में पत्तियां गिराते हैं और ग्रीष्म में हरे भरे रहते हैं ताकि बाहर भी सीखने के लिए आरामदायक जगह हो|
पौधों और पेड़ों के साथ बाहरी प्राकृतिक वातावरण जो बच्चों को अपने स्वयं के सीखने की सामग्री, रंगों का पता लगाने और बनाने की अनुमति देता है, नुक्कड़ और कोनों की खोज करता है|
पुराने टायरों का उपयोग करते हुए एक रोमांचक के का मैदान बनाना एक ऐसा स्थान जहां पर ट्रेन पोस्ट ऑफिस दुकान का आभास दिया जा सकता है जहां बच्चे मिट्टी और बालू के साथ खेलते हुए भारत के रेखा के नक्शे में अपने पहाड़ नदियां तथा घाटी बनाएं छानबीन एवं खोज|
वर्षा जल संचयन देखें और उसका अभ्यास करें।
अवसंरचनात्मक सुविधाएं शिक्षार्थी के अनुकूल, गतिविधि केंद्रित संदर्भ- फर्नीचर, इमारत, उपकरण, स्थान, समय|
प्रयोगशालाओं का मानदंड और गतिविधियाँ बालक के उम्र और स्वभाव के अनुसार हो
इमारतें एक स्कूल की सबसे महंगी भौतिक संपत्ति हैं।
भौतिक वातावरण की वृद्धि न केवल एक कॉस्मेटिक परिवर्तन ला सकती है, बल्कि उस तरीके से एक अंतर्निहित परिवर्तन भी हो सकती है, जो भौतिक स्थान बच्चे के शिक्षण से जुड़ता है।
आवश्यक और वांछनीय उपकरणों की सूची: (पुस्तकों सहित) निर्दिष्ट किया जाना चाहिए, स्थानीय सामग्रियों के उपयोग पर जोर देना, और उत्पाद, जो संस्कृति विशिष्ट हो सकते हैं, कम लागत और आसानी से उपलब्ध है।
स्थान : बलकों के उम्र, समूह-आकार ,शिक्षक- छात्र अनुपात , क्रियाकलापों की प्रकृति पर आधारित होगा।
समय: स्थान और आयु विशिष्ट मानकों और मौसम के अनुसार समय-सारिणी बनाए जाने की आवश्यकता है।
सक्षम बनानेवाले वातावरण का निर्माण : कक्षाएँ जीवंत होनी चाहिए।पठन- पाठन के दौरान छात्र को प्रश्न करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी जाए ।
जाति, लिंग, भाषा, धर्म, और आर्थिक हैसियत पर आधारित भेद-भाव नहीं किया जाना चाहिए।
लोकतंत्र और लोकतांत्रिक सहभागिता स्कूल और स्कूल के बाहर प्रदान की जानी चाहिए ।
माता-पिता और समुदाय के सदस्य एक विशेष विषय के अध्ययन के संबंध में अपने ज्ञान और अनुभवों को साझा करने के लिए संसाधन व्यक्तियों के रूप में स्कूल में आ सकते हैं।
समुदाय की भागीदारी बच्चों को उनके अन्वेषण और ज्ञान और सूचना के निर्माण में सहायता करती है।
पाठ्यक्रम के पाठ्यक्रम और शिक्षण संसाधन : ध्यान से लिखा और डिज़ाइन किया गया
पेशेवर रूप से संपादित और परीक्षण किया गया। केवल तथ्यात्मक जानकारी की पेशकश नहीं। बच्चों के लिए इंटरैक्टिव रिक्त स्थान महत्वपूर्ण हैं।
विषय शब्दकोश: तकनीकी शब्द, अनुपूरक पुस्तकें, कार्यपुस्तिकाएँ और अतिरिक्त पढ़ना आकर्षित कर सकते हैं |
बच्चों का ध्यान उनके आसपास की दुनिया पर जाता है।
सितारों के एटलस, वनस्पतियों और जीवों लोगों और जीवन पैटर्न, इतिहास और संस्कृति आदि भूगोल, हिसार और के दायरे को बहुत बढ़ा सकते हैं
सभी स्तरों पर अर्थशास्त्र। शिक्षकों के लिए नियमावली और संसाधन पाठ्यपुस्तकों की तरह ही महत्वपूर्ण हैं।
कला और शिल्प कार्यों के लिए आवश्यक उपकरणों के साथ स्कूल को सुसज्जित करना अनिवार्य है।
प्रयोगशालाएँ : खोज, शोध और ज्ञान निर्माण हेतु छात्रों को प्रोत्साहित करें ।
समय: कार्य दिवसों की कुल संख्या, गतिविधियों का कैलेंडर-शैक्षणिक
वार्षिक दिवस, सैर, खेलकूद गतिविधियां, सह पाठ्यक्रम गतिविधियां, प्राथमिक: कक्षा II तक कोई घर का काम नहीं
तृतीय श्रेणी से सप्ताह में 2 घंटे
मध्य विद्यालय: दिन में एक घंटा (सप्ताह में लगभग पाँच से छह घंटे)
माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक:
दिन में दो घंटे (सप्ताह में लगभग 10 से 12 घंटे)
शिक्षकों को योजना और राष्ट्रीयता के लिए काम करने की जरूरत है
गृहकार्य का लाभ उन्हें दिया जाना चाहिए।
दर्शनी।
शिक्षक की नियुक्ति और व्यावसायिक निर्देश: शिक्षार्थी को जितना स्थान, स्वतंत्रता, लचीलापन और सम्मान चाहिए उतना ही शिक्षक की भी आवश्यकता होती है।
न केवल शिक्षक को आदेश और जानकारी प्राप्त होती है, बल्कि समान रूप से शिक्षक की आवाज़ को उन हायरअप द्वारा सुना जाना चाहिए, जो अक्सर ऐसे फैसले लेते हैं जो स्कूल में तत्काल कक्षा जीवन और संस्कृति को प्रभावित करते हैं।
रेवती आर. - मुक्तिबोध
विद्यालय एवं कक्षा का वातावरण
वातावरण के भौतिक और मनोवैज्ञानिक आयाम महत्वपूर्ण और परस्पर संबंधित हैं।
स्कूल में बच्चे स्वयं को सुरक्षित, खुश और स्वीकृत महसूस कर सकें।
शिक्षक स्कूली वातावरण सार्थक और व्यावसायिक रूप से संतोषजनक पाएँ |
बच्चों के द्वारा की गई चित्रकारी और हस्त कार्य के नमूने दीवारों पर लगाने से माता पिता और बच्चों को यह संदेश जाता है कि उनके काम को सराहा जा रहा है |
इन कलाकृतियों को ऐसी जगहों और उतनी ऊंचाई पर लगाना चाहिए ताकि स्कूल के विभिन्न आयु वर्ग के बच्चे आसानी से पहुंचे और उनको देख पाएँ|
कक्षा गत स्थान:
अलमारी को इस प्रकार बनाया जा सकता है जिस पर बच्चे लेखन पूर्व कौशलों का तथा भिन्नों को समझने का अभ्यास कर सके, कंडोम के प्रसार को दरवाजों के नीचे चिन्हित किया जा सकता है जिससे बच्चों को कोण की अवधारणा समझने में मदद मिले या कक्षा की अलमारी को पुस्तकालय का रूप दिया जा सकता है या ऊपर लगे पंखों को विभिन्न रंगों में रंगा जा सकता है ताकि बच्चे विभिन्न रंगों के बदलते चक्रों का आनंद ले सकें|
अर्द्ध -खुला या बाहर का स्थान
बच्चों को खोज और छानबीन करने दी जाएँ
खंभे की घटती बढ़ती परछाईयाँ जो धूप घड़ी की तरह समय मापने के विभिन्न तरीके से समझा सकती है शीत के मौसम के लिए उपयुक्त पर्णपाती पौधों को लगाना जो शीत ऋतु में पत्तियां गिराते हैं और ग्रीष्म में हरे भरे रहते हैं ताकि बाहर भी सीखने के लिए आरामदायक जगह हो|
पौधों और पेड़ों के साथ बाहरी प्राकृतिक वातावरण जो बच्चों को अपने स्वयं के सीखने की सामग्री, रंगों का पता लगाने और बनाने की अनुमति देता है, नुक्कड़ और कोनों की खोज करता है|
पुराने टायरों का उपयोग करते हुए एक रोमांचक के का मैदान बनाना एक ऐसा स्थान जहां पर ट्रेन पोस्ट ऑफिस दुकान का आभास दिया जा सकता है जहां बच्चे मिट्टी और बालू के साथ खेलते हुए भारत के रेखा के नक्शे में अपने पहाड़ नदियां तथा घाटी बनाएं छानबीन एवं खोज|
वर्षा जल संचयन देखें और उसका अभ्यास करें।
अवसंरचनात्मक सुविधाएं शिक्षार्थी के अनुकूल, गतिविधि केंद्रित संदर्भ- फर्नीचर, इमारत, उपकरण, स्थान, समय|
प्रयोगशालाओं का मानदंड और गतिविधियाँ बालक के उम्र और स्वभाव के अनुसार हो
इमारतें एक स्कूल की सबसे महंगी भौतिक संपत्ति हैं।
भौतिक वातावरण की वृद्धि न केवल एक कॉस्मेटिक परिवर्तन ला सकती है, बल्कि उस तरीके से एक अंतर्निहित परिवर्तन भी हो सकती है, जो भौतिक स्थान बच्चे के शिक्षण से जुड़ता है।
आवश्यक और वांछनीय उपकरणों की सूची: (पुस्तकों सहित) निर्दिष्ट किया जाना चाहिए, स्थानीय सामग्रियों के उपयोग पर जोर देना, और उत्पाद, जो संस्कृति विशिष्ट हो सकते हैं, कम लागत और आसानी से उपलब्ध है।
स्थान : बलकों के उम्र, समूह-आकार ,शिक्षक- छात्र अनुपात , क्रियाकलापों की प्रकृति पर आधारित होगा।
समय: स्थान और आयु विशिष्ट मानकों और मौसम के अनुसार समय-सारिणी बनाए जाने की आवश्यकता है।
सक्षम बनानेवाले वातावरण का निर्माण : कक्षाएँ जीवंत होनी चाहिए।पठन- पाठन के दौरान छात्र को प्रश्न करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी जाए ।
जाति, लिंग, भाषा, धर्म, और आर्थिक हैसियत पर आधारित भेद-भाव नहीं किया जाना चाहिए।
लोकतंत्र और लोकतांत्रिक सहभागिता स्कूल और स्कूल के बाहर प्रदान की जानी चाहिए ।
माता-पिता और समुदाय के सदस्य एक विशेष विषय के अध्ययन के संबंध में अपने ज्ञान और अनुभवों को साझा करने के लिए संसाधन व्यक्तियों के रूप में स्कूल में आ सकते हैं।
समुदाय की भागीदारी बच्चों को उनके अन्वेषण और ज्ञान और सूचना के निर्माण में सहायता करती है।
पाठ्यक्रम के पाठ्यक्रम और शिक्षण संसाधन : ध्यान से लिखा और डिज़ाइन किया गया
पेशेवर रूप से संपादित और परीक्षण किया गया। केवल तथ्यात्मक जानकारी की पेशकश नहीं। बच्चों के लिए इंटरैक्टिव रिक्त स्थान महत्वपूर्ण हैं।
विषय शब्दकोश: तकनीकी शब्द, अनुपूरक पुस्तकें, कार्यपुस्तिकाएँ और अतिरिक्त पढ़ना आकर्षित कर सकते हैं |
बच्चों का ध्यान उनके आसपास की दुनिया पर जाता है।
सितारों के एटलस, वनस्पतियों और जीवों लोगों और जीवन पैटर्न, इतिहास और संस्कृति आदि भूगोल, हिसार और के दायरे को बहुत बढ़ा सकते हैं
सभी स्तरों पर अर्थशास्त्र। शिक्षकों के लिए नियमावली और संसाधन पाठ्यपुस्तकों की तरह ही महत्वपूर्ण हैं।
कला और शिल्प कार्यों के लिए आवश्यक उपकरणों के साथ स्कूल को सुसज्जित करना अनिवार्य है।
प्रयोगशालाएँ : खोज, शोध और ज्ञान निर्माण हेतु छात्रों को प्रोत्साहित करें ।
समय: कार्य दिवसों की कुल संख्या, गतिविधियों का कैलेंडर-शैक्षणिक
वार्षिक दिवस, सैर, खेलकूद गतिविधियां, सह पाठ्यक्रम गतिविधियां, प्राथमिक: कक्षा II तक कोई घर का काम नहीं
तृतीय श्रेणी से सप्ताह में 2 घंटे
मध्य विद्यालय: दिन में एक घंटा (सप्ताह में लगभग पाँच से छह घंटे)
माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक:
दिन में दो घंटे (सप्ताह में लगभग 10 से 12 घंटे)
शिक्षकों को योजना और राष्ट्रीयता के लिए काम करने की जरूरत है
गृहकार्य का लाभ उन्हें दिया जाना चाहिए।
दर्शनी।
शिक्षक की नियुक्ति और व्यावसायिक निर्देश: शिक्षार्थी को जितना स्थान, स्वतंत्रता, लचीलापन और सम्मान चाहिए उतना ही शिक्षक की भी आवश्यकता होती है।
न केवल शिक्षक को आदेश और जानकारी प्राप्त होती है, बल्कि समान रूप से शिक्षक की आवाज़ को उन हायरअप द्वारा सुना जाना चाहिए, जो अक्सर ऐसे फैसले लेते हैं जो स्कूल में तत्काल कक्षा जीवन और संस्कृति को प्रभावित करते हैं।
मंतव्य-लेखन : सक्रिय समूह गतिविधि
पुस्तक-समीक्षा
विषय.पत्रकारिता और जनसंचार के बदलते आयाम अभिव्यक्ति और माध्यम का संदर्भ
दिनांक 20-05-2018 को आयोजित सक्रिय समूह गतिविधि जो कि कक्षाः11 वीं एवं कक्षा-12 वीं के लिए संकलित विषयवस्तु ‘अभिव्यक्ति एवं माध्यम’ के निमित्त पत्रकारिता एवं जनसंचान के विविध आयामों पर केन्द्रित रही। इसमें सीमित समयावधि में सभी 39 प्रतिभागियों ने अपने मंतव्य देकर एक कीर्तिमान रचना एवं उत्पादक सामग्री भी शिविर को प्रदान की
उपविषय "पत्रकारिता का सैद्धांतिक स्वरुप क्या था" पर परिचर्चा का प्रारंभ करते हुए समूह समन्वयक डॉ.अश्विनी कुमार शिवहरे ने कहा कि स्वतंत्रता पूर्व से हिन्दी गद्य व पत्रकारिता समानांतर चली आ रही है|इसी क्रम में आगे चलकर आलोचना और साहित्य की अन्य गद्य विधाओं का विकास हुआ|स्वतन्त्रतापूर्व की पत्रकारिता पर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन व लोककल्याण की भावना की गहरी छाप थी|उपविषय "पत्रकारिता का व्यावहारिक स्वरूप क्या है"को स्पष्ट करते हुए श्री तेजनारायण सिंह ने कहा कि आज पत्रकारिता अपने सैद्धांतिक पक्ष से भटक गई है और व्यवहार में सत्यपरकता,निष्पक्षता तथा जनकल्याण का पक्ष कहीं पीछे छूटता नज़र आ रहा है|असत्य, वंचना तथा निंदा की प्रवृत्तियां हावी हो रही हैं,तथापि पत्रकारिता के स्थापित मूल्यों की रक्षा करने वाले लोग भी आज संघर्ष कर रहे हैं|
उपविषय "पत्रकारिता और जनसंचार के पारंपरिक माध्यम क्या रहे हैं"पर अपने विचार रखते हुए डॉ.सुश्री नीति शास्त्री ने कहा कि पत्रकारिता की शुरुआत इसके सबसे बड़े संवादसेतु नारदजी से होती है|महाभारत काल में भी संजय उवाच के माध्यम से धृतराष्ट्र व गांधारी को युद्ध का आंखोंदेखा हाल सुनाया गया था|भीमबेटका के प्रागैतिहासिक कालीन शिलालेखों, लावणी,तमाशा आदि लोकनृत्यों के माध्यम से भी समाज के एक बड़े हिस्से तक संदेश पहुंचाए जाते रहे|
उपविषय "पत्रकारिता की तटस्थता बनाम पीत पत्रकारिता :कितना सैद्धांतिक कितना सत्य "पर अपने विचार रखते हुए श्री महेश पाण्डेय ने कहा कि पत्रकारिता का मुख्य लक्ष्य समाज में जागरूकता फैलाना है|अगर पत्रकारिता तटस्थ व निष्पक्ष होगी तो पीतपत्रकारिता के लिए स्वतः ही कोई स्थान न रहेगा और चरित्रहनन व झूठ पर आधारित पत्रकारिता हतोत्साहित होगी|
उपविषय मीडिया की वाच-डॉग भूमिका क्या और वर्तमान दशा पर सुश्री गीता मर्दवाल ने कहा कि व्यवस्था और प्रशासन की निगरानी वाली भूमिका से आज मीडिया दूर हटता जा रहा है|इसके कारण देश की वास्तविक समस्याएँ भी सामने नहीं आ पा रही हैं|यह स्थिति जनता व लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है|
उपविषय "नागरिक पत्रकारिता व सोशल मीडिया के उपयोग और दुरुपयोग :कौन तय करे मानदंड " पर परिचर्चा में डॉ.योगेन्द्र कुमार पाण्डेय ने कहा कि नागरिक पत्रकारिता के दो आशय हैं|एक तो इसका तात्पर्य नागरिकों के सापेक्ष या अनुकूल पत्रकारिता से है, और दूसरा अर्थ पत्रकारिता की प्रक्रिया में जनता को शामिल करने से है|सोशल मीडिया की विभिन्न नेटवर्किंग साइट्स जैसे फेसबुक, व्हाट्स एप व ट्विटर आदि के माध्यम से लोगों को पत्रकारिता और संदेशों,संवादों के आदानप्रदान का एक सशक्त मंच हासिल हुआ है|इनसे एक ओर जहाँ द्रुत गति से संवादों के आदानप्रदान व सामाजिक सहयोग समेत अनेक लाभ हैं, वहीं इनसे अफ़वाहें, भ्रम, झूठ आदि का भी द्रुत प्रचार हो जाता है| सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, सेंसरबोर्ड तथा सोशल साइट्स पर नियंत्रणकारी अन्य संस्थाएं एक हद तक ही प्रभावी हो सकती हैं|असली मानदंड,जनता व समाज के सक्रिय लोग अपनी सजगता व जनजागृति से ही तय कर सकते हैं|
उपविषय नागरिक पत्रकारिता व सेंसरयुक्त पत्रकारिता में कौन बेहतर-संपादक: आज कितनी आवश्यकता निःशेष पर श्री चंद्रजीत यादव ने कहा कि आज की पत्रकारिता में सत्ता और समाज के शक्तिशाली दबाव समूहों से प्रभावित होना अत्यंत साधारण बात हो गई है|नागरिक पत्रकारिता और संपादक की भूमिका पर सेंसरयुक्त पत्रकारिता हावी हो रही है|
उपविषय संघर्षरत छोटे अख़बारों और पत्रिकाओं को लीलता महामीडिया युग पर श्रीमती सुशीला देवी ने कहा कि कलम की धार,तलवार की धार से तेज होती है|इस विषय का पुरजोर समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें भी स्वयं द्वारा अखबार व पत्रिका निकालने के दौर में कड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा था|
उपविषय बाज़ार के प्रभाव में संपादकों के कद और अस्तित्व की वर्तमान स्थिति पर श्री अचल सिंह मीणा ने कहा कि संपादक समाज का एक स्वयंसेवक होता है, लेकिन आज कुछ संपादक इस धारणा से भटक गए हैं|वे बाज़ार-प्रभावित व स्वयं के लिए लाभ सृजित करने को अधिक प्राथमिकता देते हैं|
अंतिम उपविषय टीआरपी बढ़ोतरी और प्रायोजित खबरों के निर्माण के युग में मीडिया की विश्वसनीयता कितनी शेष पर डॉ.अमिताभ शर्मा ने कहा कि आज अनेक प्रमुख प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का नियंत्रण पूंजीपतियों के हाथों में है|वहीं पाठक भी चतुर है|वह यह जानता है कि कौन से अख़बार व चैनल किस समूह से प्रभावित हैं|वस्तुतः आज मीडिया राजमत व लोकमत की दुधारी तलवार पर चल रहा है|सफल परिचर्चा का प्रभावशाली ढंग से समापन करते हुए डॉ.शर्मा ने कहा कि फिर भी मीडिया में अनेक समूह ऐसे भी हैं जो अपना कर्तव्य जानते हैं और लोकतंत्र की सच्ची सेवा कर रहे हैं|अतः निराश होने की आवश्यकता नहीं है|
पुस्तक-समीक्षा
विषय.पत्रकारिता और जनसंचार के बदलते आयाम अभिव्यक्ति और माध्यम का संदर्भ
दिनांक 20-05-2018 को आयोजित सक्रिय समूह गतिविधि जो कि कक्षाः11 वीं एवं कक्षा-12 वीं के लिए संकलित विषयवस्तु ‘अभिव्यक्ति एवं माध्यम’ के निमित्त पत्रकारिता एवं जनसंचान के विविध आयामों पर केन्द्रित रही। इसमें सीमित समयावधि में सभी 39 प्रतिभागियों ने अपने मंतव्य देकर एक कीर्तिमान रचना एवं उत्पादक सामग्री भी शिविर को प्रदान की
मन्नू भंडारी समूह से श्री शिवनारायण शर्मा की रिपोर्ट
समकालीन पत्रकारिता से जुड़े सभी संदर्भों पर आधारित वार्ता सत्र में सभी विचारकों ने अपने विचार अत्यंत विचार सम्मत ढंग से प्रस्तुत किया । "तुझे मुंड माला पहनाते, फिर भय कहते तकते लोग ।। दयामयी कह कह चिल्लाते , माँ दुनियाँ का देखा ढोंग ।।"
सत्र का निचोड़ निराला द्वारा अनुदित इस कविता के माध्यम से समझा जा सकता है ।
वक्ताओं ने निष्पक्षता को पत्रकारिता का मूल उत्स बताया । समकालीन घटनाओं के आलोक में वाचडॉग पत्रकारिता की जरूरत को व्यवस्था और तंत्र की छिद्रों को भरने के लिए आवश्यक बताया । इलेक्ट्रानिक माध्यमों की प्रचुरता ने पत्रकारिता के आयामों को बदल दिया है और इस पर न ही कोई नियंत्रण है और न ही नियामक , सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव ,उभार तथा इसके सकारात्मक - नकारात्मक प्रभाव को इस संदर्भ में देखा जा सकता है । इस परिघटना ने संपादक की महत्ता को उजागर किया है । वक्ताओं ने सत्यनिष्ठ और निष्पक्ष संपादक को समाज के मंगल के लिए आवश्यक माना ।व्यवसायिकता और बाज़ार ने पत्रकारिता /प्रिंट मीडिया/छोटे पत्रपत्रिकाओं को गंभीर रूप से प्रभावित किया है । तथा इसके प्रभाववश आज की पत्रकारिता 'इंफॉर्मेशन' की बजाय "इंफोटेनमेंट" परोस रही है । और इस व्याधि को राजनीतिक हित और स्वार्थपरकता ने अधिक भयावह बना दिया है । इन विडंबनाओं के बाद भी लोगो मे मीडिया के प्रति विश्वसनीयता बनी हुई है , आवश्यकता है कि इस विश्वास को और भी पुष्ट किया जाए ।
इस प्रकार मन्नू भंडारी समूह के सदस्यों ने जनसंचार और पत्रकारिता के विभिन्न उपविषयों पर अत्यंत रोचक ,सारगर्भित और अपने लोकोन्मुख विचारो से सदन को अवगत कराया ।
हरिवंश राय बच्चन समूह से डॉ. योगेन्द्र कुमार पाण्डेय की रिपोर्ट
उपविषय "पत्रकारिता का सैद्धांतिक स्वरुप क्या था" पर परिचर्चा का प्रारंभ करते हुए समूह समन्वयक डॉ.अश्विनी कुमार शिवहरे ने कहा कि स्वतंत्रता पूर्व से हिन्दी गद्य व पत्रकारिता समानांतर चली आ रही है|इसी क्रम में आगे चलकर आलोचना और साहित्य की अन्य गद्य विधाओं का विकास हुआ|स्वतन्त्रतापूर्व की पत्रकारिता पर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन व लोककल्याण की भावना की गहरी छाप थी|उपविषय "पत्रकारिता का व्यावहारिक स्वरूप क्या है"को स्पष्ट करते हुए श्री तेजनारायण सिंह ने कहा कि आज पत्रकारिता अपने सैद्धांतिक पक्ष से भटक गई है और व्यवहार में सत्यपरकता,निष्पक्षता तथा जनकल्याण का पक्ष कहीं पीछे छूटता नज़र आ रहा है|असत्य, वंचना तथा निंदा की प्रवृत्तियां हावी हो रही हैं,तथापि पत्रकारिता के स्थापित मूल्यों की रक्षा करने वाले लोग भी आज संघर्ष कर रहे हैं|
उपविषय "पत्रकारिता और जनसंचार के पारंपरिक माध्यम क्या रहे हैं"पर अपने विचार रखते हुए डॉ.सुश्री नीति शास्त्री ने कहा कि पत्रकारिता की शुरुआत इसके सबसे बड़े संवादसेतु नारदजी से होती है|महाभारत काल में भी संजय उवाच के माध्यम से धृतराष्ट्र व गांधारी को युद्ध का आंखोंदेखा हाल सुनाया गया था|भीमबेटका के प्रागैतिहासिक कालीन शिलालेखों, लावणी,तमाशा आदि लोकनृत्यों के माध्यम से भी समाज के एक बड़े हिस्से तक संदेश पहुंचाए जाते रहे|
उपविषय "पत्रकारिता की तटस्थता बनाम पीत पत्रकारिता :कितना सैद्धांतिक कितना सत्य "पर अपने विचार रखते हुए श्री महेश पाण्डेय ने कहा कि पत्रकारिता का मुख्य लक्ष्य समाज में जागरूकता फैलाना है|अगर पत्रकारिता तटस्थ व निष्पक्ष होगी तो पीतपत्रकारिता के लिए स्वतः ही कोई स्थान न रहेगा और चरित्रहनन व झूठ पर आधारित पत्रकारिता हतोत्साहित होगी|
उपविषय मीडिया की वाच-डॉग भूमिका क्या और वर्तमान दशा पर सुश्री गीता मर्दवाल ने कहा कि व्यवस्था और प्रशासन की निगरानी वाली भूमिका से आज मीडिया दूर हटता जा रहा है|इसके कारण देश की वास्तविक समस्याएँ भी सामने नहीं आ पा रही हैं|यह स्थिति जनता व लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है|
उपविषय "नागरिक पत्रकारिता व सोशल मीडिया के उपयोग और दुरुपयोग :कौन तय करे मानदंड " पर परिचर्चा में डॉ.योगेन्द्र कुमार पाण्डेय ने कहा कि नागरिक पत्रकारिता के दो आशय हैं|एक तो इसका तात्पर्य नागरिकों के सापेक्ष या अनुकूल पत्रकारिता से है, और दूसरा अर्थ पत्रकारिता की प्रक्रिया में जनता को शामिल करने से है|सोशल मीडिया की विभिन्न नेटवर्किंग साइट्स जैसे फेसबुक, व्हाट्स एप व ट्विटर आदि के माध्यम से लोगों को पत्रकारिता और संदेशों,संवादों के आदानप्रदान का एक सशक्त मंच हासिल हुआ है|इनसे एक ओर जहाँ द्रुत गति से संवादों के आदानप्रदान व सामाजिक सहयोग समेत अनेक लाभ हैं, वहीं इनसे अफ़वाहें, भ्रम, झूठ आदि का भी द्रुत प्रचार हो जाता है| सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, सेंसरबोर्ड तथा सोशल साइट्स पर नियंत्रणकारी अन्य संस्थाएं एक हद तक ही प्रभावी हो सकती हैं|असली मानदंड,जनता व समाज के सक्रिय लोग अपनी सजगता व जनजागृति से ही तय कर सकते हैं|
उपविषय नागरिक पत्रकारिता व सेंसरयुक्त पत्रकारिता में कौन बेहतर-संपादक: आज कितनी आवश्यकता निःशेष पर श्री चंद्रजीत यादव ने कहा कि आज की पत्रकारिता में सत्ता और समाज के शक्तिशाली दबाव समूहों से प्रभावित होना अत्यंत साधारण बात हो गई है|नागरिक पत्रकारिता और संपादक की भूमिका पर सेंसरयुक्त पत्रकारिता हावी हो रही है|
उपविषय संघर्षरत छोटे अख़बारों और पत्रिकाओं को लीलता महामीडिया युग पर श्रीमती सुशीला देवी ने कहा कि कलम की धार,तलवार की धार से तेज होती है|इस विषय का पुरजोर समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें भी स्वयं द्वारा अखबार व पत्रिका निकालने के दौर में कड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा था|
उपविषय बाज़ार के प्रभाव में संपादकों के कद और अस्तित्व की वर्तमान स्थिति पर श्री अचल सिंह मीणा ने कहा कि संपादक समाज का एक स्वयंसेवक होता है, लेकिन आज कुछ संपादक इस धारणा से भटक गए हैं|वे बाज़ार-प्रभावित व स्वयं के लिए लाभ सृजित करने को अधिक प्राथमिकता देते हैं|
अंतिम उपविषय टीआरपी बढ़ोतरी और प्रायोजित खबरों के निर्माण के युग में मीडिया की विश्वसनीयता कितनी शेष पर डॉ.अमिताभ शर्मा ने कहा कि आज अनेक प्रमुख प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का नियंत्रण पूंजीपतियों के हाथों में है|वहीं पाठक भी चतुर है|वह यह जानता है कि कौन से अख़बार व चैनल किस समूह से प्रभावित हैं|वस्तुतः आज मीडिया राजमत व लोकमत की दुधारी तलवार पर चल रहा है|सफल परिचर्चा का प्रभावशाली ढंग से समापन करते हुए डॉ.शर्मा ने कहा कि फिर भी मीडिया में अनेक समूह ऐसे भी हैं जो अपना कर्तव्य जानते हैं और लोकतंत्र की सच्ची सेवा कर रहे हैं|अतः निराश होने की आवश्यकता नहीं है|
हजारी प्रसाद द्विवेदी समूह से श्रीमती सन्ध्या पवार की रिपोर्ट
आज दिनांक 20.05.18 को समूह गतिविधि के अंतर्गत 'पत्रकारिता और जनसंचार के बदलते आयाम :अभिव्यक्ति और माध्यम के सन्दर्भ में' विषय पर परिचर्चा की गई। जिसके अंतर्गत हज़ारी प्रसाद द्विवेदी समूह के सभी सदस्यों ने अपने अपने विचार प्रस्तुत किये । श्री शरीफ आलम ने पत्रकारिता का सैद्धान्तिक उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए आज के सन्दर्भ में स्पष्ट किया की ये जनकल्याण न होकर केवल बाज़ारू हो गया है। पत्रकारिता कहीं अपने उद्देश्य से भटक रही है।
श्री शत्रुघ्न सिंह जी ने पत्रकारिता के व्यवहारिक स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए सोशल मीडिया तथा तत्कालीन घटनाओं का ज़िक्र करते हुए पत्रकारिता के सकारात्मक स्वरुप को बताया।
डॉ. पूनम त्यागी ने पत्रकारिता और जनसंचार के बदलते माध्यम के अंतर्गत परम्परागत माध्यमों की जगह आधुनिक माध्यमों ने ले ली है। जैसे समाचार पत्र पत्रिकाएं इंटरनेट आदि ने ले लिया है, इससे इस प्रतीत होता है की दुनिया मुट्ठी में हो गई हो। इसके आने से हम कहीं भी किसी भी सूचना से जुड़ सकते हैं।
डॉ. सीमा शरण ने उपरोक्त उपविषय को आगे बढ़ाते हुए पत्रकारिता के नए आयाम इन्टरनेट,बेब, दूरदर्शन, मोबाइल,व्हाटस ऐप,इंस्ट्राग्राम,ट्विटर,फेसबुक हैं,जो चिकित्सा,विज्ञापन,भक्ति ,मिथ्या प्रचार,धर्म सभी को प्रभावित कर रहे हैं यह बताया।
श्री संजय कुमार काटोले जी ने बताया की पीत पत्रकारिता पत्रकारिता की तटस्थता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। श्रीमती सुनीता लोहरा ने बता की एलेक्ट्रॉनिक मीडिया मीडिया का सुविधाजनक रूप है। श्री नीलेश ने नागरिक पत्रकारिता और सोशल मीडिया का उपयोग पर चर्चा करते हुए बताया कि नागरिक पत्रकारिता कई मायनों में उचित होने के साथ साथ समाज में अनावश्यक वैमनस्य भी फैला रही है साथ ही राजनीतिक पार्टियां भी इसका फायदा उठा रही हैं इस पर नियन्त्रण सरकार के साथ साथ स्वंय व्यक्ति को भी रखना होगा।
श्री अवध बिहारी सिंह ने नागरिक पत्रकारिता और सेंसरयुक्त पत्रकारिता पर प्रकाश डालते हुए संपादकों को स्वार्थों से जुड़े हिने के कारण वह निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं कर पा रहे हैं। सेंसरयुक्त पत्रकारिता में व्यक्ति के अधिकारों को नाकारा न जाये। श्री भूपेश जी ने पक्षधरता या एडवोकेसी पत्रकारिता के विभिन्न स्वरूपों को स्पष्ट किया करते हुए विषय के साथ सम्बद्ध किया । श्रीमती संध्या पंवार ने बाज़ार के प्रभाव में संपादकों के कद को स्पष्ट करते हुए कविता व फिल्मों के साथ विषय को स्पष्ट किया।
पत्रकारिता का मूल सिद्धांत जिज्ञासा शांत करना एवं सामाजिक उत्तरदायित्व निभाना है। इसके पारंपरिक माध्यम अखबार, पत्रिकाएँ, रेडियो आदि हैं किंतु वर्तमान समय में इंटरनेट मुख्य माध्यम बना हुआ है फिर भी पारंपरिक माध्यमों की उपेक्षा नहीं की जा सकती, उनका आज भी महत्व है। व्यावसायिक-दबाव के कारण आज की पत्रकारिता भटक रही है और तटस्थता, निष्पक्षता को त्याग कर पीत पत्रकारिता पर अधिक ध्यान दे रही है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ माना जाता है क्योंकि वाचडॉग पत्रकारिता एवं एडवोकेसी पत्रकारिता के द्वारा वह जनता और सरकार दोनों को जागरूक करती है पर पत्रकारिता अपने इस दायित्व से खिसकती जा रही है। आजकल नागरिक पत्रकारिता का प्रचलन ई. माध्यम के कारण अत्यधिक बढ़ गया है, इसके लाभ-हानि पर विषेष ध्यान दिए जाने की आवष्यकता है। महामीडिया युग में छोटे अखबारों का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है फिर भी कुछ छोटे अखबार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए टिके हैं। यद्यपि टीआरपी केन्द्रित और प्रायोजित खबरों की प्रस्तुति के युग में मीडिया की विश्वसनीयता पर अनेक सवाल उठ रहे हैं तथापि मीडिया की विश्वसनीयता बनी हुई है। समाचार पढ़ने, देखने और सुनने वाली जनता जागरूक हुई है, वह समाचार पत्र, समाचार चैनल की पक्षधरता को समझने लगी है। सोषल मीडिया द्वारा प्रचारित सामग्री को स्वीकार करते समय हमें अधिक सचेत और जागरूक रहना होगा।
श्री शत्रुघ्न सिंह जी ने पत्रकारिता के व्यवहारिक स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए सोशल मीडिया तथा तत्कालीन घटनाओं का ज़िक्र करते हुए पत्रकारिता के सकारात्मक स्वरुप को बताया।
डॉ. पूनम त्यागी ने पत्रकारिता और जनसंचार के बदलते माध्यम के अंतर्गत परम्परागत माध्यमों की जगह आधुनिक माध्यमों ने ले ली है। जैसे समाचार पत्र पत्रिकाएं इंटरनेट आदि ने ले लिया है, इससे इस प्रतीत होता है की दुनिया मुट्ठी में हो गई हो। इसके आने से हम कहीं भी किसी भी सूचना से जुड़ सकते हैं।
डॉ. सीमा शरण ने उपरोक्त उपविषय को आगे बढ़ाते हुए पत्रकारिता के नए आयाम इन्टरनेट,बेब, दूरदर्शन, मोबाइल,व्हाटस ऐप,इंस्ट्राग्राम,ट्विटर,फेसबुक हैं,जो चिकित्सा,विज्ञापन,भक्ति ,मिथ्या प्रचार,धर्म सभी को प्रभावित कर रहे हैं यह बताया।
श्री संजय कुमार काटोले जी ने बताया की पीत पत्रकारिता पत्रकारिता की तटस्थता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। श्रीमती सुनीता लोहरा ने बता की एलेक्ट्रॉनिक मीडिया मीडिया का सुविधाजनक रूप है। श्री नीलेश ने नागरिक पत्रकारिता और सोशल मीडिया का उपयोग पर चर्चा करते हुए बताया कि नागरिक पत्रकारिता कई मायनों में उचित होने के साथ साथ समाज में अनावश्यक वैमनस्य भी फैला रही है साथ ही राजनीतिक पार्टियां भी इसका फायदा उठा रही हैं इस पर नियन्त्रण सरकार के साथ साथ स्वंय व्यक्ति को भी रखना होगा।
श्री अवध बिहारी सिंह ने नागरिक पत्रकारिता और सेंसरयुक्त पत्रकारिता पर प्रकाश डालते हुए संपादकों को स्वार्थों से जुड़े हिने के कारण वह निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं कर पा रहे हैं। सेंसरयुक्त पत्रकारिता में व्यक्ति के अधिकारों को नाकारा न जाये। श्री भूपेश जी ने पक्षधरता या एडवोकेसी पत्रकारिता के विभिन्न स्वरूपों को स्पष्ट किया करते हुए विषय के साथ सम्बद्ध किया । श्रीमती संध्या पंवार ने बाज़ार के प्रभाव में संपादकों के कद को स्पष्ट करते हुए कविता व फिल्मों के साथ विषय को स्पष्ट किया।
मुक्तिबोध समूह से डॉ. रवीन्द्र कुमार दुबे
पुस्तक-समीक्षा
डॉ प्रकाश ठाकुर
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मन्नू भण्डारी
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स्त्री शतक
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पवन करण
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स्त्री शतक'
पवन कारण द्वारा प्रणीत ऐसी पुस्तक है जो अनेक
दृष्टियों से अप्रतिम साबित होती है । भारतीय ज्ञानपीठ ने इस कृति को प्रकाशित
कर पाठकों के सामने न केवल सौ स्त्रियों की मानसिक पीड़ाओं और द्वंदों को सामने
रख रखा है , बल्कि
पौराणिक आख्यानों की धुंध में से सौ स्त्रियों पर टार्च की सी रोशनी डाल कर जिन
स्त्रियों की अलग अलग छवि दिखाई है ,
वह पाठकों को अभिभूत ही नही करती , बहुत कुछ सोचने को विवश करती है ।
यह पुस्तक पुरुषों की कामेच्छा और भोगेच्छा को बिना किसी लाग लपेट के सहजता के साथ प्रकट कर देती है । बूढ़े च्यवन ऋषि के मन मे सुकन्या को प्राप्त करने की चाहत ,ऋषि चाहत नहीं कही जा सकती वह निःसंदेह राजचाहत थी । वृद्ध से युवा बने च्यवन के कायांतरण में खास बात यह है कि सुकन्या उनके वृद्ध शरीर की झुर्रियों को भूल नही पाती । कवि ने कितनी मार्मिक पंक्तियाँ लिखी है - "युवा होकर वे भले ही कामदेव सरीखे सुदर्शन देने लगे दिखाई मगर जब भी क्रीड़ा मग्न होते हम उनकी वे झुर्रियां जिन्हें उन्होंने मेरे लिए त्याग दिया जलकुंड में आ आकर याद सताने लगती मुझे " (पृष्ठ 215) कल्याणपाद को जिस ऋषि ने रति दोष का शाप दिया था ,उसी ऋषि के पास अपनी भार्या मदयन्ति को संभोग के लिए भेज देना कितना गर्हित प्रसंग गई । पुरुषों की पुत्र कामना में अंध हो जाना जिस उत्कटता के साथ इस पुस्तक में अंकित हुआ है ,वह मर्मस्पर्शी है । पुरुष की कामलोलुपता पर प्रहार करती ये पंक्तियां द्रष्टव्य है - 'राजपाट के साथ साथ भोगने के लिए हमे भी अपने कमंडल में भरे घूमते हो तरह तरह के शाप ।"( पृष्ठ 212) कहने की आश्यकता नही की अपनी इन्द्रियों को वश में न कर सकने वाले तपस्यायाभ्रष्ट ऋषि पर प्रहार काफी तीखा है । इस पुस्तक में 'पवन करण' जी ने पुरुषों की इस विवेकहीनता को विशेष रूप से उजागर किया है कि वे स्त्री मैन की स्वाभाविक कामनाओं का थिंदा भी ध्यान नही रखते और मनमानी करते है । राजा दशरथ ने अपनी सुपुत्री को ऋष्यश्रृंग ऋषि का जीवन साथी बनाना चाहा था ,यह कितना गलत था । एक युवती की भावनाओं को जो अभिव्यक्ति इस पुस्तक में मिली है वह अविस्मरणीय है - इस पुस्तक की विशिष्ट उपलब्धि यह भी है कि इसमें ऐसी स्त्रियों से हमारा परिचय होता है जो साहित्य में उपेक्षित बनी हुई थी । उपेक्षिता को सामने लाने की कवि की विषणा दृष्टि अद्भुत रूप से सफल हुई है । कवि ने पुस्तक में संग्रहित इन छोटी कविताओं में जिन बिम्बों की सृष्टि की है ,वे भी काफी प्रभावशाली बन पड़े है । छंदमुक्त होने पर भी कविताओं की पंक्तिया इस प्रकार चरणबद्ध हुई है कि उचित आरोह अवरोह और निपातों का ध्यान रखते हुए पढ़ी जाए तो अद्भुत आनंद देंगी । पुस्तक पाठको को आख्यानों की दुनियां की सैर कराती है । नारी मन की दुविधाओं को खोलने तथा पुरुषों की हृदयहीन वासनाओं को संकेतित करने की दृष्टि यह यह पुस्तक अपने ढंग की अकेली पुस्तक है । इसकी पठनीयता असंदिग्ध है । |
डॉ० अश्विनी कुमार शिवहरे
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हरिवंश राय बच्चन समूह
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स्त्री शतक
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श्री पवन करण
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पुस्तक
समीक्षा
पुस्तक का नाम – स्त्री शतक (कविता संग्रह) लेखक – पवन करण प्रकाशन – भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली मूल्य – 370 रु. संस्करण – प्रथम, वर्ष 2018 पवन करण की यह कविता दुनिया की आधी आबादी को अपनी खरी दृष्टि से एक अलहदा अंदाज में देखने की सृजनात्मक पद्धति है । इस पुस्तक में पौराणिक एवं मिथकीय साहित्य से आई हुई 100 स्त्रियों की चर्चा की गई है । कवि ने इन स्त्री पात्रों के सांसारिक संबंध एवं उनकी उत्पत्ति का संदर्भ, भाग-भोग्य और विडंबनाओं का चित्रण किया है । भारतीय चिंतन धारा में स्त्रियों की ऐतिहासिक स्थिति की पडताल यहाँ कवि अपने नजरिये से करने का प्रयास करता है। कहा जा सकता है कि कवि की सूक्ष्म दृष्टि आज के विविध आंदोलनों के भीड – भाड वाले दौर में भी स्त्री मन के अंतरतम को छूने की ईमानदार कोशिश इस सृजन के माध्यम से की गई है । जिन स्त्री पात्रों का चित्रण कवि ने किया है उनका परिचय भी कविता में दिया गया है । कवित्व एवं शैली की दृष्टि में सभी नारी पात्र पौराणिक पृष्ठिभूमि से होते हुए भी वर्तमान नारी जीवन की समस्याओं से पाठक को रूबरू कराते हैं । अप्रतिम शिल्प, सर्जनात्मक भाषा का प्रयोग संग्रह को विशिष्टता प्रदान करता है । कविता पाठकों से संवाद करती है । समग्र रूप से यह कविता – संग्रह आज की स्थितियों और भीड – भाड में किन्हीं प्रचलित नारों से दूर अपनी बात कह्ता और आश्वस्त करता है। आधुनिक साहित्य की कसौटी पर इसे एक उत्कृष्ट रचना मानने में कतई संदेह नहीं हो सकता है । |
शरीफ आलम
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द्विवेदी समूह
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स्त्री शतक
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पवन करण
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पवन करण मेरे लिए बड़ा नाम है | उनका स्त्री शतक नारी का इतिहास है | मेरा मानना है कि पूरी पृथ्वी स्त्रियों का है | स्त्री न होती तो यह तो क्या होता | इसकी कल्पना मात्र से हम अपने अस्तित्त्व को खतरे
में पाते हैं | सम्पूर्ण
पृथ्वी स्त्री का ऋणी है | स्त्री
का महत्त्व मानने वाले समाज में बहुत लोग हैं |
स्त्री की अस्मिता को सभी स्वीकार करते हैं | पर स्त्री के योगदान को बोलने तक, चर्चा करने तक ही महत्त्व दिया जाता है ( मै समाज
के ऊँचे
ओहदे पर आसीन ताकतवर महिला की बात नहीं कर रहा,
जो गिनती की हैं )
स्त्री को पुरुष समाज के वर्चस्व का प्रश्न लेकर पुरुषो के पास ही न्याय के लिए जाना पड़ता है | हमारा समाज पुरुषवाद के मठों, मंडियों को नहीं पार कर पाती है | आधुनिक युग में भी स्त्री स्वतंत्रता, समानता, अस्मिता आदि जैसे सवालों से जूझ रही है | आज स्त्री घर में सुरक्षित है ? हमारे आदर्श ही कपड़े चुराते, हज़ारों विवाह करते, महिलाओं को छेड़ते, गर्भवती पत्नी को जंगल भेजते पूजे जाते हैं | पर स्त्री गमन तो छोटी सी बात है | राजे महाराजे तो हज़ारों रानियाँ रखते थे, आदि | जब हमारे पूजनीय ऐसे हैं तो भक्तों को तो भगवान का अनुशरण करना तो सुन्नत माना गया है | पर स्त्री की पीड़ा उसकी आँखों में देखा जा सकता है | वह क्या है ? उसकी औकात क्या है उसकी आँखों में देखा जा सकता है | क्या वह सुरक्षित है ? इस प्रश्न का जवाब नही ढूँढा जा सकता है | स्त्री को मर्यादा का पाठ पढ़ाया जाता है | उसे उसके बोलने भर से बादनामी का डर दिखाया जाता है | उसकी पीड़ा खानदान की पीड़ा से हमेशा ही बड़ा होता है | अकबर इलाहाबादी ने ठीक ही लिखा है - हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम / वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता | स्त्री शतक में लेखक पवन करण जी ने इतिहास के अँधेरे कोने से एक-एक कर सौ स्त्रियों को निकाला है | बाकी को हम में से भी कोई निकलने की कोशिश कर सकता है | ये स्त्रियाँ किसी भी काल या पक्ष - देवता या दानव की रही हों, उनकी स्थिति लगभग एक सी हैं | उनका स्त्री होना भाग-वान होना समस्या का मूल कारण है | स्त्री एक शरीर मात्र रही है | मंथरा की पंक्तियाँ देखें - केकई के आगे हाँफता बूढा - प्रेम उसे / कुढ़न से भर देता, वह केकयी के / रूप के आगे फीके मणि - स्तंभों से टिकी / अयोध्यापति की एक और हार को पीठ दिखाकर महल से बाहर जाता देखती है | कविता में वर्णित स्त्रियों की आवाज़ बनकर कवि पवन करण ने उसे समाज की को बताया है कि हम जिन्हें पूजते है | वे कैसे है ? उन्होंने स्त्रियों के साथ कैसा व्यवहार किया है ? दीर्घतमा मामतेय की पंकियां - 'राज बलि जैसे कई समर्थ / इस त्रिषि के दरबाजे के बाहर खड़े / अपनी रानियों के बाहर आने की प्रतीक्षा कर रहे होते |' इसमें हमारे आदर्श की धज्जियाँ उडती दिखाई देती है | पति स्वयं अपनी पत्नी को पर पुरुष के पास ले जा रहा है | कैसा है हमारा समाज दिखता है | क्रमश... |
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